Friday, 3 April 2020

दिया जलाओ





दिया जलाओ. 

मन के अँधियारे कोने में

जब प्रकाश बंधा हो तड़प रहा हो

तुम खुद लौ की तरह जलो

जगति से तम हर जाओ

दिया जलाओ।

सूर्य छिपा हो आशाओं का

घोर निराशा के बादल में

कोई एक किरण भी जब

न दिखे सूर्य के सप्तरंग में

अपनी शक्ति को ढूंढो

तुम इंद्रधनुष बन जाओ

दिया जलाओ.  - PP

Sunday, 18 February 2018

देश के बैंकर्स आज दुःखी हैं।

देश के बैंकर्स आज दुःखी हैं।

ऐसा लग रहा है की देश की हर आँख आज बैंकर को एक घटना के बाद शक की निगाह से देख रही है, Social Media पर चुटकुलों की भरमार आ गयी है और मीडिया पानी पी- पी के बैंक और बैंकिंग सिस्टम को कोस रहा है।

भ्रष्टाचार हर जगह है, भ्रष्ट लोग हर जगह हैं इसलिए बैंक में भी हैं। लेकिन इसका मतलब ये नहीं की पूरा बैंकिंग सिस्टम भ्रष्ट है और हर कोई भ्रष्टाचार में लिप्त है। बैंकर्स देश की अर्थव्यवस्था के रीढ़ की हड्डी यानि बैकबोन हैं और देश इन्ही कर्मठ बैंकर्स की वजह से कई आर्थिक झंझावातों को पार कर आगे बढ़ा है। कई, कई और कईयों बार यहाँ तक की जब विश्व की अर्थव्यवस्था डांवाडोल थी, तब भी इन्ही परिश्रमी और ईमानदार बैंकर्स की वजह से देश मजबूती से खड़ा था।

देश के भ्रष्टाचार के बारे में गूगल करने पर एक रिपोर्ट मिली - CMS-India Corruption Study 2017 Perception and Experience with Public Services & Snapshot View for 2005-17.

सर्वे के अनुसार टॉप 10 पब्लिक सर्विसेस में जनता सबसे ज्यादा Interact बैंक से करती है जो की PDS, Health/ Hospital, School Education  और Electricity से भी ज्यादा है। यानि आप बैंकर्स के काम के बोझ का आकलन कर सकते हैं। और जनता सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार कहाँ महसूस करती है उसकी भी लिस्ट प्रतिशत में देखिये :

Police : 34%, Land/ Housing: 24%, Judicial Services : 18%, Tax : 15% PDS : 12%, WaterSupply: 9%, HealthServices: 8%, Electricity: 7% BankingServices : 7% और SchoolEducation : 6%

यानी सबसे ज्यादा public के संपर्क में आनेवाली बैंकिंग व्यवस्था भ्रष्टाचार की निचली कगार पर है। और public reach या कहिए जनता से Bankers का ये संपर्क 2005 में जहां 10% था आज वो 75% है। जैसा की ये सर्वे कहता है “ Exceptional being banking services, where a huge jump in percentage of households interacted with banking related services could be seen (from only 10% in 2005 to 75% in 2017).”

Public Reach बढ़ा है, सेवाओं की संख्या बढ़ी है, बैंकिंग और अर्थव्यवस्था की जटिलताएँ बढ़ी हैं और इन सबकी वजह से एक आम बैंकर के जीवन की जटिलताएँ भी बढ़ी हैं। लोन दो तो वसूलने की जटिलता, न दो (even for technical deficiency in project) तो आप economy/ industry और public को support नहीं कर रहे। किस्मत रही तो पैसे वापस आएंगे किस्मत साथ न दे तो सारे process फॉलो करने के बाद भी NPA. वसूलने जाओ तो उधारलेने वाले मोहल्ले को जमा करके बताएँगे की कैसे बैंक वाले गुंडागर्दी कर रहे हैं, न वसूल पाओ तो मीडिया वाले NPA के figures को TV पर नचा - नचा के दिखाएंगे और बैंकर्स के निकम्मेपन के कसीदे गढ़ेंगे। । हर कोई बैंकर से उम्मीद करता है की वो एक super human की तरह credit officer के साथ हीं शरलक होम्स, ज्योतिषी, आर्थिक मोर्चे पर देश का बलिदानी सिपाही और welfare agent के रूप में काम करे, उसपर चवन्नी भर के भी public money के नुकसान की accountability अलग से, बैंकर होने की बहादुरी के तमगे के रूप में।

क्या आपको याद है किसी मीडिया चैनल ने बैंकर्स के काम, उनके work pressure और उनकी जिंदगी पर कोई 15-20 मिनट का भी शो किया हो। अभी हाल में ही एक चैनल वाले भाई साहब ने किसी बैंकर को ज्ञान दे दिया की पहले सर्टिफिकेट दो की हिन्दू – मुसलिम शो नहीं देखते हो फिर बैंकर्स पे शो करेंगे। क्यों भाई, अपने हजारो शो के लिए आपने किस किस से सर्टिफिकेट लिए थे जो कभी अंधेरे और कभी उजाले में शो करते हो?

मीडिया की सर्वे मैं बहुत दिलचस्पी रहती है। क्यों नहीं मीडिया वाले एक सर्वे और करवाएँ। रात में 9 बजे – 10 बजे – 11 बजे public service में काम करने वाले/  रास्ते में घर लौटने वालों से पूछें तो पता चलेगा आधे बैंकर्स हैं। वीरेंद्र सहवाग कभी फिरोज़शाह कोटला से day – night मैच देखकर घर लौटे तो हो सकता है उन्हे एकाध बैंकर ब्रांच में बैठा काम करता भी दिख जाये।

देश में इतना industrialisation हुआ, क्या बैंको का कोई योगदान है?

देश के गरीब सूदखोरों के चंगुल से निकाल पाये, क्या बैंको का कोई योगदान है?

आपका पैसा चोर डाकुओ से सुरक्षित है, क्या बैंको का कोई योगदान है?

मिडिल क्लास घर गाडियाँ और बेहतर जीवन जी रहा है, क्या बैंको का कोई योगदान है?

आपके बच्चे आपके बजट से बाहर अच्छे educational institutes में पढ़ रहे हैं, क्या बैंको का कोई योगदान है?

आपके जीवन के हर क्षेत्र के सुधार में क्या बैंको का कोई योगदान है?

यदि हाँ, तो आज बैंकर्स भी अपने जीवन में आपका कुछ योगदान चाहते हैं – Social Media और Media के jokes और दुर्व्यवहार से अलग वो सम्मान जो वो deserve करते हैं। 0.01% बैंकर्स शायद गलत हों पर क्या 99.99% को उसी कटघरे में रखना सही है?

विश्वास रखिए, बैंकर्स इस बार भी मजबूती के साथ इस बुरे दौर से निकल जाएँगे और देश के विकास में लगातार अग्रणी भूमिका निभाएंगे। और आपका साथ मिले ना मिले, देश के प्रति उनके कर्तव्य को अटूट commitment के साथ निभाएंगे।  

देश का ही

एक बैंकर

Tuesday, 29 March 2016

ढाई मिनट की छोटी सी कहानी मेरी लेखनी से;

ढाई मिनट की छोटी सी कहानी मेरी लेखनी से;  

मौसम में हल्की ठंढक सी लग रही थी। ऐसे में हमेँ गरमागरम पॉपकॉर्न खाने का मन हो आया। अब हम ठहरे देसी आदमी। पॉपकॉर्न  का असल टेस्ट तो तब पता चले जब उसे किचन में कूकर में नहीं, जलावन की लकड़ी के ऊपर कढ़ाई में रेत के साथ भून कर खाया जाये। सो हमने किया जुगाड़, लगाई लकड़ी में आग और बैठ गए बरामदे में पॉपकॉर्न फ्राई करने।

हमारे पड़ोस के घर में एक गब्दू जी रहते थे। शहर के एक समाचार पत्र में कुछ जर्नलिस्ट वगैरह थे। आए दिन उस समाचार पत्र का मालिक उनके घर आ धमकता और उनकी चिल्लाहट से बात समझ आती की गब्दू जी की खबरों में कुछ मसाले आदि का अभाव रहता था जिससे बात कुछ बन नहीं रही थी।

गब्दू जी ने हमारे बरामदे में धुआँ देखा तो फौरन इधर को आ गए। हमने उनको पॉपकॉर्न ऑफर किया और साथ ही बातों – बातों में बताया की इस चूल्हे पर क्यूँ भून रहे हैं। गब्दू जी ने कहा की वो बरामदे में धुआँ देख कर आ गए की कुछ बढ़िया पक रहा है। हमने भी कहा की भाई आग और धुआँ तो दूर तक दिखता है, देखिये हो सकता है एक –दो मित्र और आ जावें। पता नहीं हमारी कौन सी बात उन्हे पसंद आ गयी की चट से अपना कैमरा लेकर आए और धुएँ को बैक्ग्राउण्ड में लेकर हमारी फोटो उतार लिया।

अगली सुबह उनके समाचार पत्र में हमारी धुएँ के साथ वाली फोटो छपी थी और साथ में ग्लोबल वार्मिंग में हमारी सहभागिता पर भारी –भरकम शब्दों में कुछ था जो हमारी समझ में नहीं आया। खैर हम फेमस हो गए और इसके लिए हमने गब्दू जी का धन्यवाद किया।

अगले महीने हमारे यहाँ म्यून्सीपालिटी के चुनाव होने थे। उम्मीदवारों में मुद्दों को लेकर मारामारी चल रही थी। पर जनता का मूड देखकर लग रहा था की मामला कुछ जम नहीं रहा है। हमारे अगले मुहल्ले में एक टप्पू जी थे। यूं तो कौंट्रेक्टर परिवार से थे और मेयर कोई भी हो कौंट्रेक्टर बाबूजी का दबदबा रहता था। टप्पू जी काफी बरसों से सीधे राजनीति में सक्रिय होना चाहते थे पर परिवार और चेले-चपाटो के पूरे सपोर्ट के बावजूद कुछ करिश्मा नहीं कर पा रहे थे। वर्तमान मेयर के पक्ष में लहर थी जिसकी वजह से टप्पू जी परेशान थे। अपने चेला मंडली के साथ रद्दी पेपर में चिवड़ा गुड़ खाते हुए मुद्दे तलाश रहे थे की धुएँ के बैक्ग्राउण्ड में मेरी तस्वीर के साथ ग्लोबल वारमिंग पर गब्दू जी का लेख दिख गया । पता नहीं कैसे, पर लगा की उनको जन्नत मिल गयी। अगले ही दिन टप्पू जी ने गब्दू जी सहित 4-5 फ्रीलांस पत्रकारों को बुलाकर पहले उन्हे चाय पकोड़ो से नवाजा और फिर वर्तमान मेयर के राज में ग्लोबल वार्मिंग में मेरे योगदान पर अपना एक interview दिया और बताया की वो ये बर्दाश्त नहीं करेंगे और सभी विपक्षी पार्टियों का एक गठबंधन तैयार करके वर्तमान मेयर के विरुद्ध जनता के बीच में जाएँगे। फिर तो शहर की सड़क- नाले की सफाई, जल जमाव आदि एक तरफ, बस धुएँ के बैक्ग्राउण्ड में हमारी फोटो और वर्तमान मेयर के राज में ग्लोबल वार्मिंग में हमारा योगदान हीं चर्चा में था। मुद्दे में एकदम नयेपन की वजह से जनता को ग्लोबल वार्मिंग वाली बात समझ में आ गयी और चुनाव जीतने के साथ ही गठबंधन के सहयोग से टप्पू जी नए मेयर चुन लिए गए। एक प्लैटफ़ार्म पर जीत से हौसला बढ़ा और राज्य स्तर पर आगे बढ्ने की मूहीम चालू हो गई। 5-6 महीनो बाद राज्य असेंबली के चुनाव थे और गठबंधन और ग्लोबल वार्मिंग के साथ टप्पू जी के हौसले बुलंद। ज़ोर शोर से चुनाव प्रचार शुरू हो गया। पोस्टरों में एक तरफ हमारा साइज़ बढ़ गया और दूसरी तरफ मुट्ठी बांधे हमारी तरफ इशारा करते हुए टप्पू जी का फोटो जुड़ गया। हम तो वही थे धुएँ के बैक्ग्राउण्ड में पॉपकॉर्न भूनते हुए पर हर अगले चौराहे के पोस्टर में टप्पू जी का पोज उनके नारों के साथ बादल जाता। अचानक से लगने लगा की लोग अब टप्पू जी को अपने हितैषी के रूप में जानने लगे हैं जो ग्लोबल वार्मिंग जैसे बड़े विकराल दानव से उनकी रक्षा करने वाला है॥

जैसे जैसे चुनाव पास आने लगे, प्रचार की गतिविधिया तेज होने लगी। एक दिन सुबह –सुबह घर के बाहर शोर सुन कर बाहर निकले तो देखा कुछ समाजसेवी बुद्धिजीवी हाथ में डंडा पट्टी लेकर धरने पर बैठे थे। बाहर निकलते हीं गब्दू जी और उनके साथियों ने मेरी फोटो लेना शुरू कर दिया। फिर कहीं से खबर मिली की टप्पू जी एक बड़ा मोर्चा लेकर मेरे घर के सामने प्रदर्शन और भाषण करेंगे। इन सबके बीच सरकार द्वारा मेरे घर के आगे एक पुलिस चौकी बैठा दी गई। अब आए दिन टीवी-अख़बार वालों का मेरे घर के सामने जमघट लगता। जर्नलिस्ट कमेरे की और मुह करके चार लोगो को बैठा के ज्ञान संगम करते और उनकी कोशिश यही होती की कमेरे में एक पल को भी मैं, मेरा घर, पॉपकॉर्न भूनने की जगह और कुछ नहीं तो बरामदे में पड़ा मेरा खटिया या लटका हुआ गमछा हीं टीवी मेँ दिख जाये।

मामला गरमाता जा रहा था। टप्पू जी हर मंच पर सरकार की निकृष्टता की वजह से ग्लोबल वार्मिंग पर मेरे योगदान को कोस रहे थे, टीवी पर उनही की चर्चा देखने में लोगो के बिजली बिल बढ़ रहे थे और जनता पूरी गरम जोशी के साथ तालियाँ बजा-बजा कर उनका समर्थन कर रही थी।

चुनाव खत्म हो गए थे। वर्तमान सरकार चुनाव हार गयी थी, राज्य असेंबली में टप्पू जी गठबंधन की सरकार बन गयी थी। टीवी पर रात 9 से 11 बजे ग्लोबल वार्मिंग पर चर्चा करने वाले बुद्धिजीवी मानो अब छुट्टीयां बिता रहे थे। ग्लोबल वार्मिंग को ठीक से न रोक पाने के लिए देश की विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर काफी किरकिरी हुई थी, टप्पू जी राष्ट्रीय चुनावो की तैयारी के लिए लिए गली-चौराहो-स्कूल-कॉलेजो में चक्कर लगा मुद्दे तलाश रहे थे और इन सबके बीच मैं घर के किचन में कूकर में पॉपकॉर्न फ्राई करके चुपचाप खा रहा था।    

~प्रणव पीयूष

Saturday, 4 October 2014

'स्वच्छता अभियान' के मायने

'स्वच्छता अभियान' के मायने

कोई पूछे की भारत देश में क्या समस्याएं हैं तो समस्याओं की एक लम्बी फेहरिस्त तैयार हो जायेगी। गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, क़ानून-व्यवस्था की कमियां और लाचारियां, बुनियादी ढाँचे की कमजोरियां, सुरक्षा-स्वास्थ्य-शिक्षा व्यवस्थाओं व् अर्थतंत्र की बदहाली, और न जाने कितने हीं। ऊपर से बाढ़ - सुखाड़ - भूकम्प की समस्याएं अलग से। मैं सभी समस्याओं को मुख्य दो समस्याओं के तहत मानता हूँ - मनुष्य जनित समस्याएं (Man Made Problems) एवं प्रकृति प्रदत्त समस्याएं (Natural Problems) ।

हजारों ऎसी समस्याएं हैं जो हम मनुष्यों ने खुद ही उत्पन्न की हैं पर हम ऐसा मानना नहीं चाहते। Natural Problems के साथ ही Man Made Problems पर भी असंख्य किताबे लिखी जा चुकी हैं और लिखी जाती रहेंगी। पर आँखे मूंदकर समस्याओं की फेहरिस्त गिनाना और उसके लिए स्वयं को छोड़कर हर किसी को अर्थात व्यक्तियों को, व्यवस्था को, सरकार को या समाज को दोष देना हमारी स्वाभाविकता में कब समाहित हो जाती है उसका ज्ञान ही नहीं होता।

हमारे आसपास फैली गंदगी एक ऎसी ही Man Made Problem है। ऐसा शायद नहीं की हमें स्वच्छता पसंद नहीं पर स्वच्छता रखने की जहमत उठाने का ख्याल हमें नहीं आता क्योंकि रोजमर्रा से जुड़े सौ और महत्त्वपूर्ण काम हैं। इसलिए हम अपना वक्त और साधन बचाने के लिए अन्य सौ लोगों की भीड़ पर कटाक्ष करते हुए उन्ही में शामिल हो जाते हैं कि जब सब गलत कर रहे हैं तो मुझे क्या पड़ी है सबसे अलग दिखने की।

स्वच्छता के मामले में हम ये सोच लेते हैं (और जानबूझकर नहीं, बल्कि कहीं back of the mind में ) कि सब अच्छे से नही रहते तो मैं स्वेच्छा से स्वच्छ क्यों रखूं अपनी गली, अपना मोहल्ला, अपना शहर या अपना समाज। देखा जाय तो back of the mind में हम ये सोचते भी नहीं हैं, कोई चिंतन भी नहीं करते। यदि करते तो कुछ तो सार्थक निकल आता मन से। पर पान की पीक की पिचकारी दीवारों पर मारना, चिप्स के पैकेट या पानी की बोतलें गाड़ी की खिड़की से हाथ निकालकर फेंक देना हमारी सहज सी आदत हो गयी है। सड़क की गन्दगी में नाक बंद कर जल्द से जल्द उस जगह को पार कर लेना, फिर गंदगी पार कर जाने के बाद (साफ़ जगह) थूक फेकना, मानो हमने कहा 'लो भाई सड़क, तुमने अपनी गंदगी से हमारे मुँह और नाक में बदबू और बैक्टीरिया दिया जिसे हमने तुम पर हीं थूक कर बदला ले लिया। कुल मिला कर हम इतनी सहजता से असहज स्थितियों में रहना सीख गए हैं कि असहज स्थितियां उत्पन्न करना भी हमारे लिए सहज हो गया है।

अब देखिये,सड़क पर जाम लगे होने पर हम लगातार हॉर्न बजाते हैं और जब हमारे पीछे वाली गाड़ी से हॉर्न की आवाज आती है तो उसे घूर कर कहते हैं - क्या करे? चढ़ जाएँ? पर साथ हीं ये भी उम्मीद रहती है की हमारे हॉर्न का victim हमें ऐसी कोई बात न कहे न ही घूरकर देखे। हमें ये भी विश्वास होता है कि उस जाम में या लालबत्ती पर हमारे आगे जितने भी लोग हैं वह वहीं सड़क पर बसने आए हैं जो हम किसी भी हालत में होने नहीं देंगे। क्या यह समझाने के लिए भी एक अभियान चलाने की आवश्यकता है की सड़क पर हर कोई आगे चलने के लिए हीं आता है ,घर बसाने या पीछे वालों को किसी षडयंत्र के तहत देर करवाने नहीं।

ऎसी छोटी -छोटी बातें जिन्हे हम civic sence के नाम से जानते हैं , के लिए अभियान चलाने की आवश्यकता हमारे देश में क्यों पड़ती है ?क्या माँ को माँ और पिताजी को पिताजी कहना और जिंदगी भर ऐसा कहते रहने के लिए हमकिसी अभियान पर निर्भर हैं ?फिर देश और समाज को अपना मानने के लिए किसी अभियान की क्यों जरूरत आन पड़ती है?पर सच्चाई यह है कि हमें ऐसे अभियानों की आवश्यकता है नहीं तो स्वैच्छिक रूप से कुछ अच्छा हम करना नहीं चाहते। ऐसे काम जिनसे हमें कठिनाई तो थोड़ी हो पर दूसरों का ज्यादा भला हो वो करने की हमारी आदत नहीं है और हम ये भूल जाते हैं की अंततः हमारा हीं भला होगा क्योंकि हम भी औरो के लिए दूसरों में आते हैं। ऎसी आदते किसी अभियान के माध्यम से हममें जागृत हो सकती हैं।

यह बहुत बड़ी बात है देश के लिए की सबसे ऊंचे पद पर आसीन हमारे प्रधानमंत्री जी ने बहुत हीं जमीनी स्तर की समस्या को खत्म करने हेतु ये 'स्वच्छता अभियान 'प्रारम्भ किया है। देश के जागने की शायद ये शुरुआत हो और इसके माध्यम से अन्य कई civic sence सीख कर एक सुसंस्कृत , सभ्य और अनुशासित राष्ट्र के रूप में हम अपनी पहचान पुनः स्थापित कर पाएं। ये और राष्ट्र निर्माण के ऐसे कई अभियान व्यर्थ नहीं जाएंगे क्योंकि नींद से जग रहे राष्ट्र के जन - जन की इनमें भागीदारी होगी।

प्रणव पीयूष
03 OCT 2014












Thursday, 10 July 2014

Letter to PMOIndia - सुझाव - देश के विकास में खेलों के योगदान को उचित अवसर देने के संबंध में


03-जुलाई-2014
मुंबई
सेवा में,
माननीय श्री नरेंद्र मोदी जी
प्रधानमंत्री
भारत सरकार

प्रिय महोदय

सुझाव - देश के विकास में खेलों के योगदान को उचित अवसर देने के संबंध में

भारत देश के युवाओं के प्रति आपके विचारों ने देश के हर युवा मे आशाओं और जोश का नया संचार कर दिया है। आज हर युवा देश की प्रगति में भागीदारी चाहता है जिसके लिए अवसरों की प्रतीक्षा वह जाने कब से कर रहा था। मुझे कतई संदेह नहीं कि देश की युवा शक्ति का सर्वोत्तम उपयोग आपके नेतृत्व में सरकार अवश्य करेगी। देश के ही एक युवा नागरिक होने के नाते मेरे मन में भी हमारी मातृभूमि को विकास की राह पर चलते देखने की प्रबल इच्छा है। विभिन्न मुद्दों पर मंथन करते समय मुझे युवाओं से जुड़े क्षेत्र “खेल” पर कुछ विचार आते हैं जो सुझाव के रूप मे यहाँ प्रस्तुत हैं :

आज विश्व मे खेलों के बढ़ते महत्व को कौन महसूस नहीं करता। परंतु मुझे लगता है की हमारे देश में अभी भी खेलों और उनसे जुड़े युवाओं के समग्र विकास का मुद्दा सही ध्यानकर्षण नही पा सका है। संभवतः इसी वजह से कुछ खेलों के अलावा अन्य खेल न तो यहाँ लोकप्रिय हो पाएँ हैं न ही विश्व स्तर पर हमारी राष्ट्रीय पहचान बढ़ाने में सहायक हो पाये हैं।

आज विश्व में खेल आर्थिक जगत में भी महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। कई ऐसे खेल जो भारत में अपनी खास जगह नहीं बना सके हैं वे भी भारत को एक बाज़ार के रूप में दोहन करने में कोई कसर नहीं रख रहे हैं। टीवी, मीडिया, विज्ञापन जगत, खेल जगत से जुड़े ग्लैमर से भारत का युवा अछूता नहीं है परंतु ज़्यादातर एक बाज़ार के रूप में।

महोदय, भारत को आप एक मार्केट नहीं मैनुफेक्चुरिंग हब की तरह देखना चाहते हैं यह अत्यंत हीं प्रशंसनीय है। मेरा सुझाव है की मैनुफेक्चुरिंग हब की दिशा में हम Goods & Services के साथ Sports को भी मिला लें और आर्थिक भाषा में कहूँ तो हम विश्व स्तरीय खिलाड़ियों का उत्पादन करें और इस दिशा में मुझे लगता हैं कि “राष्ट्रीय खेल नीति बनाने कि आवश्यकता है जो खिलाड़ियो या खेलो से जुड़े लोगों को Engineer/ Doctor/ Banker/ Teacher आदि जैसा हीं आकर्षक career प्रदान करने का भरोसा दे सके। इस दिशा में मेरे कुछ सुझाव बिन्दुवार निम्नलिखित हैं :-
• राष्ट्रीय खेल नीति बनाई जाये जो देश में विभिन्न खेलों के विकास एवं monitoring हेतु रूपरेखा तैयार करे। विभिन्न खेलों व खेल संगठनों को इस खेल नीति का हिस्सा बनाया जाये।
• हर राज्य में निर्धारित संख्या में National School of Sports स्थापित किए जाये जहां का dedicated syllabus केवल स्पोर्ट्स हो और साथ में basic academic education दी जाय ठीक उसी प्रकार जैसे Academic Education School मे basic sports education दी जाती है। Sports Schools में 5वी – 6ट्ठी कक्षा से प्रवेश प्रारम्भ किया जा सकता है।
• Sports Schools की तर्ज़ पर ही उच्च शिक्षा हेतु National Collage of Sports की भी सुविधा हो।
• National School of Sports एवं National Collage of Sports के पाठ्यक्रम में अधिकतम खेलों को जगह दी जाय।
• एक Central University for Sports Education बनाई जाये जो National School of Sports एवं National Collage of Sports के पाठ्यक्रम का निर्धारण व संचालन करे।
• Academic Education की तरह यहाँ भी अर्धवार्षिक / वार्षिक परीक्षाएँ आयोजित होवे और छात्र / छात्राएं अगली कक्षा में promote होवे।
• स्पोर्ट्स स्कूल के बाद Sports Collage का प्रावधान हो। और इस प्रकार Academic Education की तर्ज़ पर Sports Education छात्रों को career में एक प्रेरक विकल्प के तौर पर उपलब्ध हो।
• इन school/ collage के छात्र / छात्राओं के लिए राष्ट्रीय / अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताएं अनेक अवसर प्रदान करेंगी।
• सेना व पुलिस आदि की भर्ती में इन संस्थानो से निकले छात्रों को प्राथमिकता मिले।खेलों के अनुशासन व शारीरिक क्षमताओं के दूरगामी परिणाम सेना व पुलिस को अधिक प्रभावी बनाने में कारगर साबित होंगे।
• देश मे हर क्षेत्र के School & College उपलब्ध हैं, यहाँ तक की संगीत एवं नृत्य के School & College भी उपलब्ध हैं, पर खेलों में career हेतु ऐसा कोई dedicated institutionary system अभी तक विकसित नहीं हुआ है।
• आज वक्त के साथ देश में ‘पहले पढ़ाई बाद में खेल’ की सोच बादल रही है। विभिन्न खेलो मे देश का नाम रोशन करने वाले खिलाड़ियों के academic education पर हम नजर डाले तो देखेंगे की कई ऐसे खिलाड़ी जो युवाओ के role model हैं, उन्होने अपनी पढ़ाई पूरी भी नही की। अर्थात मैं समझता हूँ की आज खेलों को भी academic education के समकक्ष रखने का वक्त आ गया है।

महोदय, देश के विकास के प्रति आपके सपनो को देखते हुए मुझे लगा की मैं इन सुझावों के माध्यम से कुछ contribution कर पाऊँ। आशा है कि इन सुझावों पर अवश्य ध्यान दिया जाएगा।

प्रगति पथ पर अनेक शुभकामनाओ के साथ।

आपका
प्रणव पीयूष

Monday, 19 May 2014

A letter to Chief Election Commissioner, India to implement eVoting in elections

                      
                                                                                                             30-APR-2014
Dear Sir,

First of All, I congratulate ECI for successfully conducting of General Election in the world’s biggest democracy with highest number of electorals. Secondly I would like to draw your attention with my suggestions to increase participation of voters in election process.

In India, a large percentage of people are living outside their home place due to service/ business purpose. Though, they want to be a part of electoral process and want to choose representative of their own constituency, they are unable to do so because their inability to vote from outstation. For example, I am a bank employee and transferred here and there like other government employees. I belong to Patna Sahib Constituency but I am posted in other states. Due to my inability to manage my presence at my constituency on polling day, I could not cast my vote for last 2-3 elections.  Election commission can help Lakhs of such persons who really want to cast their vote but unable to do so.

In today’s day of technology, which ECI has also utilized at its best through EVM, it is not impossible to do so. I suggest providing facility of E-Voting through following process:
    Ø All voter ID cards are already available online. ECI can provide the same on its intranet.
    Ø Whoever is interested to cast his vote through E-voting, he will register for it with ECI with some valid E-mail ID and mobile number. 
    Ø Like polling booth, ECI may create facility to have certain E-Voting booths in all constituencies.
    Ø Voter will go to E-Voting booth with valid Voter ID Card. On verification, a password will be generated for the Voter ID number.
    Ø The voter will login with his voter ID and password. On screen, his constituency and its candidate list will appear where he can click and cast his vote.
    Ø To restrict duplication of a voters vote, two voter list for a constituency may be maintained (one manual voting and E-voting). A voter once registered for E-voting (till cut off date), his name will be deleted from Manual Electoral Roll available at his constituency.    

    Sir, above is only an effort to look into this direction. I am sure, ECI will have much better ways to implement E-voting at the earliest. With maximum participation of voters, a true picture of Democracy will appear with wide representation of elected leaders. Further, people, who really want to be a part of this democratic process, will not be deprived of their rights. I, as a citizen of India, who want to vote in every election, request you to kindly implement E-voting in India at the earliest. 

    Thanking You.

Regards
_____________________________
Pranava Piyush |

Tuesday, 6 May 2014

"भ्रम"

समन्दर में छिपी गहराईयाँ कुछ और कह्ती हैं।
मगर साहिल पे डूबी कश्तियाँ कुछ और कह्ती हैं। 
हमारे शहर की आँखों ने मन्ज़र कुछ और देखा था। 
मगर अखबार की ये सुर्खिया कुछ और कह्ती हैं। 

                                                        प्रणव पीयूष