समन्दर में छिपी गहराईयाँ कुछ और कह्ती हैं।
मगर साहिल पे डूबी कश्तियाँ कुछ और कह्ती हैं।
हमारे शहर की आँखों ने मन्ज़र कुछ और देखा था।
मगर अखबार की ये सुर्खिया कुछ और कह्ती हैं।
प्रणव पीयूष
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