Saturday, 4 October 2014

'स्वच्छता अभियान' के मायने

'स्वच्छता अभियान' के मायने

कोई पूछे की भारत देश में क्या समस्याएं हैं तो समस्याओं की एक लम्बी फेहरिस्त तैयार हो जायेगी। गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, क़ानून-व्यवस्था की कमियां और लाचारियां, बुनियादी ढाँचे की कमजोरियां, सुरक्षा-स्वास्थ्य-शिक्षा व्यवस्थाओं व् अर्थतंत्र की बदहाली, और न जाने कितने हीं। ऊपर से बाढ़ - सुखाड़ - भूकम्प की समस्याएं अलग से। मैं सभी समस्याओं को मुख्य दो समस्याओं के तहत मानता हूँ - मनुष्य जनित समस्याएं (Man Made Problems) एवं प्रकृति प्रदत्त समस्याएं (Natural Problems) ।

हजारों ऎसी समस्याएं हैं जो हम मनुष्यों ने खुद ही उत्पन्न की हैं पर हम ऐसा मानना नहीं चाहते। Natural Problems के साथ ही Man Made Problems पर भी असंख्य किताबे लिखी जा चुकी हैं और लिखी जाती रहेंगी। पर आँखे मूंदकर समस्याओं की फेहरिस्त गिनाना और उसके लिए स्वयं को छोड़कर हर किसी को अर्थात व्यक्तियों को, व्यवस्था को, सरकार को या समाज को दोष देना हमारी स्वाभाविकता में कब समाहित हो जाती है उसका ज्ञान ही नहीं होता।

हमारे आसपास फैली गंदगी एक ऎसी ही Man Made Problem है। ऐसा शायद नहीं की हमें स्वच्छता पसंद नहीं पर स्वच्छता रखने की जहमत उठाने का ख्याल हमें नहीं आता क्योंकि रोजमर्रा से जुड़े सौ और महत्त्वपूर्ण काम हैं। इसलिए हम अपना वक्त और साधन बचाने के लिए अन्य सौ लोगों की भीड़ पर कटाक्ष करते हुए उन्ही में शामिल हो जाते हैं कि जब सब गलत कर रहे हैं तो मुझे क्या पड़ी है सबसे अलग दिखने की।

स्वच्छता के मामले में हम ये सोच लेते हैं (और जानबूझकर नहीं, बल्कि कहीं back of the mind में ) कि सब अच्छे से नही रहते तो मैं स्वेच्छा से स्वच्छ क्यों रखूं अपनी गली, अपना मोहल्ला, अपना शहर या अपना समाज। देखा जाय तो back of the mind में हम ये सोचते भी नहीं हैं, कोई चिंतन भी नहीं करते। यदि करते तो कुछ तो सार्थक निकल आता मन से। पर पान की पीक की पिचकारी दीवारों पर मारना, चिप्स के पैकेट या पानी की बोतलें गाड़ी की खिड़की से हाथ निकालकर फेंक देना हमारी सहज सी आदत हो गयी है। सड़क की गन्दगी में नाक बंद कर जल्द से जल्द उस जगह को पार कर लेना, फिर गंदगी पार कर जाने के बाद (साफ़ जगह) थूक फेकना, मानो हमने कहा 'लो भाई सड़क, तुमने अपनी गंदगी से हमारे मुँह और नाक में बदबू और बैक्टीरिया दिया जिसे हमने तुम पर हीं थूक कर बदला ले लिया। कुल मिला कर हम इतनी सहजता से असहज स्थितियों में रहना सीख गए हैं कि असहज स्थितियां उत्पन्न करना भी हमारे लिए सहज हो गया है।

अब देखिये,सड़क पर जाम लगे होने पर हम लगातार हॉर्न बजाते हैं और जब हमारे पीछे वाली गाड़ी से हॉर्न की आवाज आती है तो उसे घूर कर कहते हैं - क्या करे? चढ़ जाएँ? पर साथ हीं ये भी उम्मीद रहती है की हमारे हॉर्न का victim हमें ऐसी कोई बात न कहे न ही घूरकर देखे। हमें ये भी विश्वास होता है कि उस जाम में या लालबत्ती पर हमारे आगे जितने भी लोग हैं वह वहीं सड़क पर बसने आए हैं जो हम किसी भी हालत में होने नहीं देंगे। क्या यह समझाने के लिए भी एक अभियान चलाने की आवश्यकता है की सड़क पर हर कोई आगे चलने के लिए हीं आता है ,घर बसाने या पीछे वालों को किसी षडयंत्र के तहत देर करवाने नहीं।

ऎसी छोटी -छोटी बातें जिन्हे हम civic sence के नाम से जानते हैं , के लिए अभियान चलाने की आवश्यकता हमारे देश में क्यों पड़ती है ?क्या माँ को माँ और पिताजी को पिताजी कहना और जिंदगी भर ऐसा कहते रहने के लिए हमकिसी अभियान पर निर्भर हैं ?फिर देश और समाज को अपना मानने के लिए किसी अभियान की क्यों जरूरत आन पड़ती है?पर सच्चाई यह है कि हमें ऐसे अभियानों की आवश्यकता है नहीं तो स्वैच्छिक रूप से कुछ अच्छा हम करना नहीं चाहते। ऐसे काम जिनसे हमें कठिनाई तो थोड़ी हो पर दूसरों का ज्यादा भला हो वो करने की हमारी आदत नहीं है और हम ये भूल जाते हैं की अंततः हमारा हीं भला होगा क्योंकि हम भी औरो के लिए दूसरों में आते हैं। ऎसी आदते किसी अभियान के माध्यम से हममें जागृत हो सकती हैं।

यह बहुत बड़ी बात है देश के लिए की सबसे ऊंचे पद पर आसीन हमारे प्रधानमंत्री जी ने बहुत हीं जमीनी स्तर की समस्या को खत्म करने हेतु ये 'स्वच्छता अभियान 'प्रारम्भ किया है। देश के जागने की शायद ये शुरुआत हो और इसके माध्यम से अन्य कई civic sence सीख कर एक सुसंस्कृत , सभ्य और अनुशासित राष्ट्र के रूप में हम अपनी पहचान पुनः स्थापित कर पाएं। ये और राष्ट्र निर्माण के ऐसे कई अभियान व्यर्थ नहीं जाएंगे क्योंकि नींद से जग रहे राष्ट्र के जन - जन की इनमें भागीदारी होगी।

प्रणव पीयूष
03 OCT 2014